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तीर्थकर भगवान महावीर तव पिता र्जी आज अन्तिमं, मर रहे हैं श्वास। देखने को मुख तुम्हारा, जग रही है प्रोश' तुम चलो भट पास कर दो, तुष्ट दर्शन-प्यास ।' वीर का तन भी हिलाते, यों कहा भर श्वास ॥
आत्म-रत पर वीर ने कब, ये सुने छल-छंद । वे न मोही कब जगत के, ध्यानरत निर्द्वन्द ॥ मोह-कारक कर्म-दुस्तर, कर रहे यो ध्वस्त । पा रहे अब तो अहर्निश, शुक्ल ध्यान प्रशस्त ॥ हार कर वह देव करने, अब लगा परिताप । व्यथं इनको ही सताया, साधु यह निष्पाप ॥ इन्द्र कहते ठीक थे, ये तो न शश योग्य । उच्च साधक, हाय मैं तो, देव अधम अयोग्य ।। विश्व विजयी शक्ति मेरी, ऋद्धियाँ उत्कृष्ट ।
आज इनके प्रात्म-बल के सामने नि:कृष्ट ॥ मोह! ऐसे सावु जन की, व्यर्थ देकर क्लेश। हद किया प्रध-कर्म-बन्धन, अब न यह निःशेष ॥ है शरण मंब कौन नग में, पाप-हर अब कौन ? मैं चलूं इनकी शरण ही, ये महात्मा 'मोने ॥ और उसने बोरं के पद में मवावा 'माय । फिर क्षमा वह मांगता है, प्रति विनय के साथ। ॥ • किन्तु सन्मति साम्य अन्तसं, रागडेष शेष ।
कर उर की प्रन्थियों से, "दूर दिग्वेषः ।।