SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थकर भगवान महावीर वीर विस्मत मुस्कराए, 'मोह का यह जाल कैसा ? मात ममता प्रापको यह, कर रही जो प्रश्न ऐसा ॥' प्रागए सिद्धार्थ नप भी, इसी वार्ता के कथन में । किया सन्मति ने विनययुत, पितृ-स्वागत निज भवन में ॥ उन्हें भी दे उच्च आसन, पाप बैठे उचित थल पर । प्राप्त कर आशीष उनकी, था मुदित प्रतिवोर-अन्तर ॥ नपति बोले, 'मोह, ममता, की चली यह बात कसी। तरुणमय सन्मति तुम्हारो, फिर कहो केसी उदासी ?' कह रहे सन्मति, कि सहसा, मात त्रिसला ने कहा यों'ब्याह का प्रस्ताव रक्खा, वह अस्वीकृत किया है यों ॥ 'वत्स ! कहते ठीक तुम हो, मानता में मो यथा यह ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy