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________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १३७ खेद किश्चित भी न करते, भाव से गम्भीर । और लाभालाम में यों, सौम्य समरस वीर । यदि असाता के उदय में, होगई कुछ व्याधि । तो न वे तजते कभी भी, आत्म-योग समाधि ॥ रोग का प्राक्रोष उनमें ला न पाता शोक । मग्न निज में प्राप्तकर कुछ, आत्म-निधि का लोक ॥ वेदना के कर्म को वे किया करते ध्वस्त । प्रात्म से तन भिन्न लखकर, आत्म-चिन्तन व्यस्त ॥ गमन करते कहीं चुभता, फेर में यदि शूल । तो न उसको व्यथा में कुछ, सोचते प्रतिकूल । आंख में तिनका पड़ा तो, है न कुछ परवाह । चोट लगने पर तनिक भी, हैं न करते प्राह ॥ जान तन को मिन्न निज से, भूलते दुख-मार। ध्यान में ही लीन रहते, आत्म-कोष निहार । मैल जम जाता स्व-तन पर, पर न करते ग्लानि । लीन तप में वे न पाते, प्रात्म-निधि की हानि ॥ डाल दे यदि घल कोई, तो न गे उद्विग्न । स्वच्छ कोई तन करे तो, मो न सुख में मग्न ॥ भग्न उनका मान कर दो, तो न कुछ परवाह । मान पाने की न उनमें, उमगती चित चाह ॥ सोचते व यों न, है मम उच्च तप बल ज्ञान । विश्व जन अब तो करें मम अष्टतम सम्मान ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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