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________________ १२१ पंचम सर्ग: तरुणाई एवं विराग तुम सहोगे शोत, वर्षा, प्रोम के दुख वन जैसे ॥' "किन्तु मात विवेक शीला, भूलतीं तुम इस जगत में । नर्क से दुख महा रौरव, सह चुका बहु बार हूँ मैं, __ ये न दुख उनके मयामय. मरण-जन्मों के जटिल से । फिर न मां तव पुत्र ऐसा, जो डरेगा संकटों से ॥' ___'जानती सन्मति तुझे मैं, जन्म से तू साहसो है । और तेरे धैर्य से हो, बंध रही हिम्मत मुझे है ॥ मोह का आवेग सच यह, जो कि निकले बचन ऐसे । तुम कहीं जाओ जगत में, कामना वस रहो सुख से ॥ कण्ठ भर आया सु-मां का, किन्तु साहस कर कहा यह । 'केवलो हो जब करोगे, विश्व-हित, होगा सु-दिन वह ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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