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________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग वर्तमान स्वरूप के कुछ, चित्र बनते हृदय-पट पर ॥ कामना प्राकुल बनाती, नव - मिलन इच्छा जगाकर । देखते सहसा कि सन्मति, जा रहे गृह, पर्यटन कर ॥ दिव्य उन्नत भाल उनका, सौम्य सुगठित कान्तिमय तन । किन्तु नत हग किए जाते, सोचते कुछ मौन मृदुमन ॥ निनिमेष नयन-चषक से, पिया सन्मति-रूप-रस कुछ । सोचती 'मुझकों' यशोदा, 'देख पाये वे नहीं कुछ ॥ कौन कानन में विचरते, हो गए वे दृष्टि-प्रोझल । हार क्यों मन मानता-सा, टोस खाते भाव कोमल ॥ रूप क्या वह रूप था मम, रूप से भो रूपमय कुछ । होन मेरा रूप क्यों, परदूसरों से अष्टितर कुछ ।'
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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