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तीर्थङ्कर भगवान महावीर मैं प्रतः बताऊंगी दरवार-भवन में। कुछ सपने जो देखे मैंने रजनी में ॥
क्या प्राप जिनालय से पाए हैं होकर।'
'हाँ' मैं पाया जिनमन्दिर से दर्शन कर ॥ हैं सपने देखे तुमने कौन कौन से ? होती अभिलाषा जानं मैं जल्दी से ॥'
'मुझको बतलाने की उत्कण्ठा भी है।
पर नियत समय दरबार पहुचना भी है। श्रीमान् चलें दरबार पोर अब सत्वर । मैं भी प्राती सखियों संग जिन दर्शन कर ॥ ___'पर'कहने को कुछ, रहे मौन नृप मन में।
चल दिए स्वयम् दरबार दिशा के मग में। उत्कण्ठा-सी छाई सम्राट वदन पर । था रखा नियन्त्रण ने जिसको बन्दी कर ॥'
सम्राट गमन के बाद स्वयम् राज्ञी भी।
चल दी जिन मन्दिर साथ लिए सखियां भी ॥ है प्रकृति किन्तु अब भी हंसती सी अविरत । चढ़ पाया दिनकर चटख धूप है प्रसरित ॥
झिलमिल झिलमिल प्रब तरु-परछाई होती।
वह मस्त झकोरे पाकर हिलती-दुलती । है किन्तु और छबि छाई राज-भवन में। नर-कृत सुन्दरता मूर्त हुई है जिसमें।