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तीर्थकर भगवान महावीर बार बार शत-शत बन्दन कर, लौटे सब अपने अपने थल । नैसर्गिक शुभ छटा विहंसती,
वातावरण भासता निश्छल । वहाँ हृदयहारी तडाग ने, द्विगणित किया सुशोमा अश्वल । शोभित नील अरुण सित शतदल
हरित पातयुत जलकण चञ्चल ॥ निकट रम्य सर के शुभ उपवन, नाम 'मनोहर' मनहर जिसका । अनुपम सुन्दरता हंसती-सी,
अति अभिराम रूप मदु इसका ॥ हरी हरो हरियाली में हैं, खिले लाल पीले नीले-से । श्वेत कासनी विविध पुष्प भी,
मानों अर्चा हित उद्यत-से ॥ किस महान मानव की पूजा, मौन सँजोते पुष्प मुदित मन । दिखे तभी पाषाण शिला पर,
समाधिस्थ समरस सु-साधु बन । यह सन्मति प्रासीन अकेले,
उपवन के एकान्त स्थान में ।