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________________ • तोर्थकर भगवान महावीर मुक्त हैं अरिहन्त पर मैं, कर्म-कारा · में बंधा हूं । हुए जग से मुक्त इस विधि, उन्हें नेता मानता हूं ॥ और जब संसार में मैं, देखता हूं शान्त होकर। तो मुझे लगता भ्रमण जगजीव करते , क्लान्त होकर ॥ शान्ति जग में है कहाँ, रे ! है कहां चिर सौख्य-साधन । . ' जन्म में भी दुख दिखाता, मृत्यु में उत्पात पीड़न ॥ तरुण वय का भी कुचलता, शिर बुढ़ापा नित्य क्षण-क्षण । .. फिर कहाँ संसार में सुख, चेत रे ! मम चेत रे मन !! . तू . अकेला शुद्ध चेतन, है न कोई साथ जम में । है. सगे साथी बने जो. मोह में वे स्वार्थ-मग में॥ जन्म में पाया प्रकेला, और . बायेगा अकेला । ....
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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