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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १४५ एक... दिन गंया . नदी के, रेत पर से वीर । एक तरु.के पास पहुंचे, , ध्यान धरने धोर ॥ खिच पए सिकता धरणि पर, आप युग पग-चिह्न । ज्योतिषीं निकला जहाँ से, देखता ये चिह्न ॥ नाम था पुष्पक कि जिसका, रेख पग को देख । सोचता यह . चक्रवर्ती, भूप जैसी रेख ॥
और फिर पुस्तक निकालो, जो बगल में साथ । देखता उससे मिलाकर, पुस्तिका निज हाथ ॥ चक्रवर्ती के. चरण ये, थेचे सब मानि । सोचता मला स्व-पथ है, वह मिले किस मॉति ॥ प्राप्त यदि मैं उसे कर लूं, लाभ लूं मैं साथ । पदि हुआ चक्रोश नृप वह, मिले द्रव्य प्रगाध ॥ यदि न वह चकोश प्रब तक, तो कह कुछ यत्न। और-उसको मैं बनाऊँ-विश्व प्रधिपति-रत्न ॥ इस तरह कुछ हाथ माए, ज्योतिषो यों सोच । चल दिया वह खोजता पग-चिह्न ले विन शोच ॥ देखता पग-चिन्ह जिसके, ध्यान में वह लोन । बाजुओं पर चक चिन्हित, वस्त्र से पर होन ॥
और माथे पर बना भी है मुकुट का रूप । "मिक्ष यह कहता हृदय में, 'हो न सकता भूप ॥' और वह निज पुस्तिका को, ध्वंश करने पर्थ । है समुद्यत, एक दर्शक देख बोला-'व्यर्थ ॥