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षष्टम् सर्ग : मभिनिष्क्रमण एवं तप १३३ आत्म-दृष्टा जानते वे, नाशवान शरीर । मात्म निज शाश्वत सदा ही, फिर बनूं न अधीर ॥ इसोविधि हो सोचकर वे, जीतते हैं प्यास । सूखता जब कण्ठ होते, तब न तनिक उदास ॥ वेदनीय दु-कर्म का यह, जानते विस्तार । है जिसे करना उन्हें यों, प्रात्म से ही क्षार ॥ जब कि जाड़े हैं कड़ाके की गिराते शोत । सिकुड़ते जन जब कि कहते, 'है विकट यह शीत ॥' जब कि जमती नदी, होती उपल को भी वृष्टि । जब नहीं कोहरे को भी, पार करती दृष्टि ॥ अग्नि की जब शरण लेते, वस्त्र पहने व्यक्ति ।
और सी-सी तदपि करते, स्व-तन में अनुरक्ति ॥ योगि सन्मति सरित-सर-तट, माढते तब योग । पूर्व के यों कर्म-मल का मेटते संयोग ॥
और जब है प्रीष्म पाती, भूमि बनतो तप्त । सूखते सर-नदी-नाले, सलिल होता लुप्त ॥ सूर्य किरणें ज्वलित शोलों-सी बरसती उग्र । विहग भगते छोड़ अण्ड, प्यास में अति व्यग्र ।। जब कि चलतो अनल-सी लू, झुलसता संसार । जब न करते मनुज, पशु, खग एक पग संचार ॥ वीर तब संतप्त गिरि-शिर, धारते हैं ध्यान ।
कर्मा के समिधि को, दग्ध करते जान ॥