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________________ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय नप राज्ञी से पूछता अगर, कोई वृतान्त इस घटना का ॥ तो वे बतलाते मग्न हुए, प्रमुदित जो कुछ था हुमा घटित । श्रोता तन्मय हो कर सुनते, करते सन्मति-श्लाघा हषित ।। सम्मानित होते व मान, अब 'महावीर शुभ संज्ञा से । लेकिन उनमें अभिमान नहीं, बाहर-भीतर वे समरस-से ॥ सागर-से वे गम्भीर-धीर, प्राकाश सहश विस्तीर्ण दृष्टि । योखामों से बढ़ अतुल शौर्य, पर हद्-ऋजुता को मृदुल सृष्टि । मानन्द सहित दिन बीत रहे, सन्मति हो पाये प्रब किशोर । साहसिक कार्य करते रहते, चिन्तन में भी रहते बिमोर ॥ सामाजिक कार्यो में उनको. रहता किश्चित सोच नहीं । जन-हित निज़ प्राण-समर्पण में, होता कुछ उनको सोच नहीं।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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