________________
सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश १५० चतुर्दिशाओं में कि जहाँ पर, चार वीथियो।
जिनमें मानस्थम्भ देख हत मान-ग्रन्थियां । मानस्थम्भों पर शोभित हैं, जिन प्रतिमाएं । मोद-भाव से जिनको करते सुर पूजाएँ ॥
होती श्रद्धा घनीभूत है, सत्प्रभाव यह ।
प्रास्थानांगण कहलाता, प्रास्था-पढ़ाव यह ॥ मानस्थम्भों से मागे फिर, चार सरोवर । जल-पुष्पों से शोभित निर्मल, दिव्य हृदय-हर ॥
इससे आगे रजत कोट है, रजत वर्ण का।
जिसके द्वारों पर पहरा है, व्यन्तरगण का ॥ द्वारों से भीतर अगणित ही, सजी ध्वजाएँ। लहर-फहर कर जो सन्मति को विजय जताएं।
इससे बढ़कर कोष्ट दूसरा कञ्चन छवि का ।
प्रसरित इसके मिस प्रकाश ज्यां पहले रवि का ॥ द्वारों पर हैं खड़े भुवनवासी सुर प्रहरी। फब जाती जिनसे स्वभावतः कान्ति सुनहरी ॥
फिर उपवन है जिसमें दिखते, खड़े कल्प-तरु ।
बने समागह जहाँ विहरते देव साधु-गुरु ॥ कोटि तीसरा धवल फटिक-सा, इससे बढ़ कर । जिसके द्वारों पर प्रहरी-से, खड़े कल्प सुर ॥
मागे इनके बने लतागृह सुन्दर-सुन्दर । स्थान-स्थान पर दिखते हैं, स्तूप प्रादि वर ।।