Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 217
________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना १७६ शुचि सत्य अहिंसा के विकास, सत् ज्ञान-द्वीप के चिर प्रकाश ॥ विश्वोद्धार-सरसिज-सु-हास , निस्पृहता, समरसता सु-वास । प्रभु लोक-रजना से उदास, चिर सुख-दर्शन-बल-ज्ञान-वास ॥ हिंसा रजनी को शरच्चन्द्र, __ अत्याचारों के प्रतिद्वन्दो । सद्दया-तीर्थ के तीर्थङ्कर, शुभ सत्य शांति के अभिनन्दी॥ प्रभु! पर पीड़ा हेमन्त हन्त, जग-हित हरियाली के बसन्त । __ कट क्लेश कलह के पूर्ण अन्त, शुभ मोक्ष लक्ष्मी के सु-कंत ॥ मव-सिन्धु तरण को वारियान, विभु ! सत्य शिवं सुन्दर मय । रे, जगजननी के सफल पूत, हे वीतराग ! हो गए अभय ॥ सब कालों में आदर्श प्रमल, चिर उन्नति के अति उच्च भाल । गत प्रागत और अनागत में, सुखप्रद प्रशान्ति के प्रमर लाल ।।

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