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अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना १७७ जग जगर-मगर हर तिमिर-प्रहर,
नतित प्रकाश को किरणावलि ॥ तिल-तिल चल चल अपने में जल, यह जना रही अत्मिक प्रकाश । निज प्रात्म-ज्योति से ध्वस्त करो,
अज्ञान तमस का जटिल पाश । आत्मिक विकास की शिखा सजग, सन्मति-प्रकाश है दिखा रही। निज-पर-कल्याण हेतु जीवन,
उत्सर्ग सबक है सिखा रही ॥ आलोकमयी जीवन का क्रम, तम भी होता जाता स्वणिम ।। सद्गुण प्रतीक-सा यह अनुपम,
स्वगिक वैभव भी इससे कम ॥ यह त्याग-ज्योति का प्रख्यापक, विभु वर्तमान की कीति-किरण । ज्योतिर्मय अन्तर-बाह्य सभी,
रे धन्य ! वीर शिव-रमा-वरण ॥ प्रभु धन्य धन्य सन्मति स्वामी, जिनवर जिनेन्द्र विभु निष्कामी। शाश्वत सु-शान्ति निधि अभिरामी.
शिवपद दर्शक शिवपथगामी ॥