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सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मो देिश १,६३ कहते दान करो कि सफल हो सम्पति सारो।
आवश्यकता पूर्ति दूसरे को हो भारी॥ अक्षय, शास्त्र, प्राहार और भेषज सुदान दो। समझो धन्य दान अवसर बो सुकृत बीज दो।
हैं पाथेय यहो भाई ! परलोक गमन में ।
अतः दान करते न कभी भी हिचको मन में ॥ त्याग तपस्या में जोवन का सार सन्निहित । मानव जीवन सफल इसी में, आत्मा का हित ।
बतलाते-भ्रम मिटा विश्व को करो निशंकित ।
सबसे पालो प्रेम कामना-रहित निकांछित ।। घृणा त्यागकर निविचिकित्सा रखो सौम्य तर । लोक-मूढता मेट करो अनमूढ़, दृष्टि वर ॥
पर दोषों को ढांक स्व-गुण का उपगृहन हो ।
श्रद्धा-विचलित मनुजों का संस्थितीरकण हो। महत जनों में भक्ति अमित, वात्सल्य भाव हो। करो धर्म की चिर प्रभावना, धर्म-चाव हो।
है जग पीड़ित जन्म-जरा-मरणों के दुख से ।
प्रात्म मुक्ति से छुट सकता, रौरव पीड़न से। धर्म क्षमा मार्दव प्रार्जव सत शुचि संयम तप । त्यागाकिञ्चन ब्रह्मचर्य मग, जग जाता ढप ॥
शाश्वत सुख प्राप्तोपदेश, होता सन्मति का। मार्ग सहज ही मिल जाता हैं, पंचम गति का।