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तीर्थकर भगवान महावीर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी-निशि, बीत रही है ढल-ढल अविरत । चिर अघातिया कर्म तिमिर भी,
घात कर रहे शुद्ध ध्यान-रत ॥ शुभ विहान वेला भो क्रम-क्रम, मन्थर गति से चली आ रही ।
और साधना सन्मति विभु की,
___लक्ष्य दिशा को बढ़ी जा रहो ॥ शेष कर्म तारागण देखो, कुछ कुछ विघटित हुए जा रहे । चरम लक्ष्य शिवपद अरुणोदय,
चिह्न सहज हो चले मा रहे । महावीर प्रात्मा ने तोड़ा, वह शेष कर्म बन्धन पिंजड़ा । उन्मुक्त विहग-सा उड़ा-उड़ा,
आलोकमयो चित् ज्ञान जड़ा॥ कर गया सहज ही ऊर्ध्व गमन, सत शुद्ध बुद्ध निर्मल चेतन ।
तन-गह से अब शिव सौल्य-सदन,
__ पहुंचा लहराया जय-केतन ॥ 'जय जय जय बोली सुर नर ने,
निर्वाण-धाम-गामी की जय ।