Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 212
________________ १७४ तोर्थङ्कर भगवान महावीर है भक्ति आपकी किंकर को, सच पाप तुल्य ही कर लेती। यह अक्षय समता का प्रयोग, भौतिकता क्या समता देतो? कोई भौतिक प्रमिलाष नहीं, केवल निःश्रेयश का साधन । सन्मति - अनुगामी चाहेगा, कब तुच्छ-तुच्छतम जग-जीवन ।। स्वातंत्र्य चिरन्तन सन्मतिवत्, चाहिए पूर्णपद प्रात्मा का। जिससे जग-पीड़ित पुरुष स्वयं, पा ले स्वरूप परमात्मा का ॥ जिसने तव भक्ति-स्वाद पाया, वह कैसे प्रात्मिक रस ढोले ? जिसने क्षीरोदक पान किया, __ वह कैसे खारी जल पीले ? हे देव ! न जग में दिखता है निस्पृही आप-सा उपकारी । तव जीवन का प्रत्येक चरण, उन्नति-सोपान बना भारो ॥ है कौन मोक्ष का मग, जिनेन्द्र ! अतिरिक्त मापके वर्शाता ?

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