Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 207
________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना केवलज्ञानी जग विज्ञानी, निरत प्रात्म के शक्ल ध्यान में ॥ सन्मति-जीवन के बीते हैं । पूर्ण इकहत्तर साल प्रगति में । वर्ष वहत्तरवां अब चलता, प्रात्मा की अपनी परिणति में ॥ विघट चुका है समवशरण प्रब, केवल प्रात्मिक चिन्तन नोरव । नहीं ध्यान में परिकर वैभव, नहीं लोक का सुन पड़ता रव ॥ शान्तिमयी जीवन का अञ्चल, नहीं अतृप्ति बनातो चंचल । आत्मिक निधि आवरण-हीन सी, होती जाती सहसा पल-पल ॥ जीवन की संध्या प्रशान्ति में, सनी हुई-सी चली आ रहो । यह अपूर्व समता-सी विलसित, पग-पग बढ़ती बढ़ी जा रही ॥ सन्ध्या का दूसरा चरण है, चिर विश्राम रात्रि का प्राना । पर सन्मति का ध्यान शुभ्रतर, शेष कर्म-मल उन्हें खपाना ॥

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