Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 201
________________ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश १६॥ घणिक-से सम्राट प्रतिष्ठित, श्रेष्ठि भक्त-गण। वीर-चरण में करते थे सब सफल स्व-जीवन ॥ वीर-भ्रमण से हुई क्रान्ति छूटा, उत्पीड़न । जीव-यजन मिट गया, हुआ पूरा परिवर्तन ॥ सर्व ख्यात गौतम याज्ञिक-से यज्ञ-विरत जब । स्वतः हिंसा परम धर्म में, हुए निरत सब ॥ अभय हुए पशु, नर, भग्नाश आश से पूरित । मिटी-अकाल मृत्यु जैसे, अब जीवन जीवित ॥ निस्पन्दित से हृदय हुए उनमें नव धड़कन । मिटी मलिनतम कुण्ठा मुखसे गत दुख-सिहरन । जीवन का प्रहलाद झलकता जन-आनन पर। ऋजु धार्मिक सद्वृत्ति समायी, भीतर बाहर ॥ सन्मति ज्ञान-प्रकाश कर रहा ज्योतिर्मय जग । भूले भटके सहज आ रहे सज्जीवन मग ॥ वीर चरण है अभय शरण दुखिया निबलों को। होते सब निर्द्वन्द, सुद्दढ़ सम्बल अबलों को ॥ वीर-कृपा से कुटिल क्रूरता मिट पाई है । कटु अकाल की संघटना भी घट पाई है ॥ सखे मौसम में जैसे शीतल जल बरसा । विगत विकलता झुलसन में नव जीवन सरसा ॥ मुरझाया विश्वोद्यान अब, हुआ हरा-सा । मानवता का घाव हुमा अब भरा-भरा-सा ॥

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