Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 194
________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर... पहुंचे वे राजगृह के उस विपुलाचल पर। 'महाँ वीर का समवशरण प्राया, जग-हित-कर ।। किन्तु जमी वे पहुंचे, मानस्तम्भ सन्निकट । ढहा घरौंदा-सा उनका, मद-किला तुङ्ग झट । गर्व खर्व हो रहा अरे यह चमत्कार क्या ? समता वातावरण दिखाता निज प्रमाव क्या? विनय-भाव अब रंग-ढंग में, टपक रहा है। जाति-मान अब अन्तरङ्ग से, सटक रहा है.॥ बैठे जाकर वे सब जैसे, नर कोठे में। सुना उन्होंने महावीर को, दिव्य गिरा में ॥ 'गौतम शंका साल रही है, तेरे मन को । मान न पाता तेरा मन, जीवास्तित्व को ॥ छह द्रव्ये क्या नौ पदार्थ क्या, इसको उलझन । निश्चल किंतु अनादि निधन है, जीव सचेतन ॥ चेतन, पुद्गल धर्म अधर्माकाश, काल छह । द्रव्यों का ही नृत्य दिख रहा, जगतो में यह । चित जड धर्माधर्म गगन पंचास्तिकाय हैं ॥ काल प्ररूपी ही यह केवल, नास्तिकाय है ॥ जोवाजीवाश्रव बंध सु-संवर, और निर्जरा । तथा मोक्ष इन सात तत्व का शासन प्रसरा ॥ सात तत्व में पाप पुण्य यह दोनों मिलकर । हो जाते हैं नौ पदार्थ, पद अर्थ प्रर्थकर ॥'

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