Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 192
________________ "ve तीर्थङ्कर भगवान महावीर क्रियाकाण्ड में निरत जाति-मदमें विगलित-सा। 'विद्यामद-से रहा सदा जो संचालित-सा ॥ चकराया वह इन्द्र देख गौतम की गति यह । ‘सोच रहा किस मांति करे उसको, वश में वह ॥ 'मिकला जन-समुदाय तमो, विपुलाचल जाता। जहाँ वीर का समवशरण प्राया, जग-त्राता ॥ समझे गौतम यज्ञ हेतु, नारी-नर पाते। हुये मुदित पर देखा सब, अन्यस्थल जाते ॥ ज्ञात किया यह वीर दर्श-हित, भीड़ चली है। समझा होम-विरुद्ध कहीं यह पाखंडो है ।। सोचा जन समुदाय यज्ञ से हटता जाता । प्रतः शिष्य समुदाय-बृद्धि की आवश्यकता ॥ इसी समय आगया इन्द्र घर, देष शिष्य का । विनय सहित सम्मान किया, उसने गौतम का॥ फिर बोला श्रीमान ! सु-गुरु मम,श्लोक बताकर। समाधिस्थ हैं हुए, कर रहा याद संभल कर ॥ किन्तु न इसका अर्थ समझ में मेरे पाता। मिला न कोई नो इसका मतलब समझता ॥ प्राप अधिक विद्वान ज्ञान के ही जलनिधि हैं । आप अर्थ बतला सकते, विद्यावारिधि हैं।' श्रीगौतम जी अपने मन ही मन मुस्काए । विष्य वर्ग सम्बर्द्धन के, शुभ चिन्ह दिखाए ।

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