Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 193
________________ सप्तम् सर्ग : केवल ज्ञान एवं धर्मोपदेश १५७ चिन्तन क्रम में कुछ प्रसन्नता लक्षण दशित । आत्म-प्रशंसा-मग्न, समुत्सुक, शिष्य-बृद्धि-हित ॥ बोले तब वे 'किन्तु रख रहे, शर्त एक हम । होना होगा शिष्य तुम्हें तब गुरु को भी मम ॥' सुनकर गौतम-शब्द. शिष्य अति साम्य-भाव से। बोला स्वीकृति-वचन सोच कुछ विनय चाव से ॥ 'मुझे शर्त स्वीकार अर्थ बतलायें, श्रीमन् ।' पढ़ा एक लघु श्लोक शिष्य ने जिसमें वर्णन ॥ तीन काल षट् द्रव्य तथा केवल, पदार्थ नव । सात तत्व. पंचास्ति काय-छः लेश्या नीरव ॥ तीन रत्न का सुनकर जिसको, गौतम के मन । नौ पदार्थ षट् द्रव्य आदि क्या, भारी उलझन । उलझन पर प्रावरण डालते, बोले गौतम । 'चलो अर्थ तब गुरु समीप ही. कर देंगे हम ।। कारण तुन अल्पज्ञ न कुछ भी समझ सकोगे। अर्थ बताने पर अनर्थ हो कर बैठोगे।' सोचा मन में अर्थ बता दंगा विवाद में । शिष्य बनेगा इसका गुरु भो, निज प्रभाव में ॥ कहा शिष्यने उचित यही हो, आप विज्ञ जन !' कार्य सिद्धि लख शिष्य रूप में इन्द्र मुदित मन ॥ अग्निभ ति, श्री वायुभ ति, युग बाधु साथ ले। शिष्य वेषभारी सुरेन्द्र मंग, गौतम निकले ।।

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