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द्वादश वर्षों तक अति घोर, तपस्या तपकर । उपसर्गों को झल, ठेल बाधाए दुस्तर ॥
पहुचे जम्बक ग्राम वीर, ऋजुकला के तट ।
करते नष्ट कर्म करा हैं, वे तप में डट ॥ है वसन्त अपने यौवन की, श्री सुषमा में । चारों प्रोर वीर के विकसित, छवि आभा में ॥
उत्सव होने वाला क्या, दिखता है कोई ।
प्राज शुष्कता मुदित प्रकृति ने मुख से धोई॥ वातावरण महकता अपनी, रूप • सुरभि में। किन्तु रम रहे सन्मति तन्मय,निज परणति में ॥
बैठे हैं पाषाण शिला पर, शाल वृक्ष-तर ।
वेला माढे ध्यान हो रहा, शुभ्र शुक्लतर ॥ लो वैशाखी शित दशमी भी कम से पाई। घन प्रज्ञान अमा सम्मति ने, सहज मिटाई॥
मिटे घातिया कर्म-तमस-अणु जम्म-जन्म के। ज्योतिपुञ्ज सन्मति आत्मा में, उदित ज्ञान के।