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१३२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर हो उठा सहसा वहां पर, दिव्य यह सौन्दर्य । लो बहा सुरभित मरुत भी, पञ्च ये प्राश्चर्य ॥ धन्य कुल नृप ने दिया जो, शुद्ध शुभ प्राहार । वोर से सत्पात्र मुनि को, धन्य यह सत्कार ।। पारणा पश्चात लेकिन, बन गए मुनि वीर । साधना में रत हुए जा, वे कहीं धर धीर ॥ ध्यान करते एक स्थल पर, तीन दिन गम्भीर । फिर भ्रमण कर दूसरे थल, जा पहुचते वीर ॥ इस तरह दृढ़ मोह बन्धन, हो न पाते पुष्ट । इस तरह सम प्राय रहता, सौम्य जीवन-पृष्ठ ॥ किन्तु वर्षा काल में वे, एक ही हो स्थान। चार मासों तक निरन्तर, साधते हैं ध्यान ॥ हो विराधित नहीं जिससे, जोव-राशि अपार । कीट-कृमि, तरु-घास का जो, रूप लेती धार ॥ और जिससे कर्म प्राश्रव, हो न कुछ अनजान । इसलिये करते न मुनिवर, अन्य स्थान प्रयाण ॥ वीर करते साधना सब, भूल जग-जंजाल । यातनायें भी न उनको, कर सकी बेहाल । म ख को पोड़ान उनका, कर सकी कुछ ह्रास । मास छः छः मास के वे, माड़ते उपवास ॥ पर क्षधा भी थी न उन पर, पा सको कुछ जीत । क्षीण होता था कलेवर, पर न मन भयभीत ॥