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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १३५ रूपसी-सौन्दर्य वैभव, पर न सन्मति मुग्ध । धवल उनका चरित पावन, श्वेत-सा ज्यों दुग्ध । वीर चर्या के विकट दुख. भोगते सम-भाव । घूमते जो पालकी में, आज नंगे पांव ।। मार्ग कंकड़ और पत्थर, शूल से आकीर्ण । अभय चलते पैर होते, कहीं पूर्ण विदीर्ण ॥ किन्तु सन्मति को न इसकी, ओर कुछ भी ध्यान । निरत होते साधना में, हृदय ऋजु अम्लान ॥ साधना में एक आसन में सदा आसीन । कभी बिचलित वे न होते, कष्ट के प्राधीन ॥ एक प्रासन माढ़ लेते, गिरि सदृश निष्कम्प । चलित उनको कर न पाता, प्रबलतर भूकम्प ॥ कमी हैं वे खड़े होते, अचल कायोत्सर्ग । निर्जरा करते प्रशम सह. प्रबल कटु उपसर्ग ॥ फूल-सी मृदु सेज पर जो, शयन करते नित्य । तथा जिनकी व्यवस्था में, लगे रहते भृत्य ॥ अब कभी वे रात भर भी, शिला पर आसीन । भूलकर विश्राम, रहते प्रात्म-चिन्तन-लीन ॥ कमी पिछले प्रहर निशि में, सजग सोते शान्त । एक करबट से सदा वे, पर न किचित क्लान्त ।। वेदनीय दु-कर्म का यों, मेटते वे लेख । और निर्मल प्रात्म-पद को, खींचते हैं रेख ॥