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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १७ हां प्रथम उसने बहुत ही, दैत्यगण विकराल । थे रचे निज शक्ति माया, से कुडौल विशाल । कष्ट जिनसे दे अमित हो, हो न पाया तुष्ट । चिघता हाथो दिखाया मारने को दुष्ट । पर न इससे वीर अस्थिर, शान्त दृढ़ गम्भीर । प्रात्म-दृढ़ता में जड़े-से, व्यर्थ दुःख समीर । किंतु इससे देख वह, भव रुद्र ही प्रति ही उन । कर उठा उत्पात दुस्तर वीर वर के अग्र ॥ शीत की ऋतु और उसने, प्रति किया हिम पात। पर रहा निष्कम्प ऋषिवर का प्रबलतम गात ॥
और तब उसने बहाया, तेज झंझाबात । मेघ गरजन, विद्यु तड़पन और वर्षा-घात ॥ सर्प विच्छू कनखजूरे, जन्तुओं के बार। क्रूर मायावी उपस्थित, ध्यान करने क्षार ॥ किन्तु इससे योगि सन्मति, हैं न अस्थिर चित्त ।
सह रहे उपसर्ग निश्चल शान्ति समता वृत्ति। रुद्रवे सब कृत्य निष्फल, देख सोची बात । चाहिये करना मुझे अब, नीति का प्राघात ॥ इसलिए ही मात त्रिशला, का रखा निज रूप। प्रौर माया पास उनके, छलमयो घर रूप ॥ प्रवेषी सुष्ठ बोला-'आह ! मम प्रिय नन्द । ददती तुझकी फिरी मैं, गिरि गुहा सुखकन्द ।।