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११० तीर्थकर भगवान महावीर
मौन व्रत में लीन उत्तर में अतः निःशब्द । ग्वाल उत्तेजित हुआ कहने लगा अपशब्द । कान में ठोका नुकोला, दण्ड जब सुविशाल । पर निरर्थक बज्र-तन में, वे अचल उस काल ॥ वेदनाकृत कर्म सश्चित, कर रहे यों नष्ट । ग्वाल भी आश्चर्ययुत-सा, देख तप में निष्ट ॥ बैल उसको कुछ दिखाए, झाड़ियों के पास । पर रहे गरदन झुकाये, जो हरित-सी घास । झट-गया बलों निकट वह, भूलकर सब कृत्य । कर रहा परिताप अब वह, 'क्यों किया दुष्कृत्य ?' बल ले आया जहाँ पर, वीरवर ध्यानस्थ । शीघ्र ही उसने निकाला, दण्ड जो श्रवणस्थ ॥ फिर क्षमा की याचना की, ग्वाल ने नत शीश । पर तपस्या लीन सन्मति, द्वेष विगत मुनीश ॥ एक दिन सन्मति चले श्वेताम्बि थल की ओर । भूमि पर थी दृष्टि उनकी शोधते हर और ।।
जा रहे कारुण्य उर में, सौम्य नीरव गात । ग्वाल-बालों ने कहो तब, तब मार्ग में यह बात ॥ 'देव ! करिए इस न पथ पर, पाप तनिक विहार । मार्ग में है घण्डकौशिक, सर्प का सञ्चार ॥ दृष्टविष इस सर्व कारण, भस्म होते नीव । विष भरा वातावरण सब, विषमयी निर्जीव ॥