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चण्ड कौशिक मर्प इनको, देख कद्ध अपार । भर उठा भीषण धृपा-सी, विषमयी फुकार ॥
लो. विपैला हो गया थल, वृक्ष का पतझार।
कर मका पर प्रात्म-योगी का न वह अपकार ।। और इस पर क द विपधर, जान अपनी हार । बह चला करने जटिलनम, दन्त का दुर्वार॥
पर न इममे नच मकी वह प्रात्म-गक्ति प्रसौम । योग में सब शान्त होते पण चलिस निस्सीम ।।