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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १४३ वीर की यह साधना, सम भाव होती मूक । पर सुनाई है यहाँ पढ़ती मनुजता-कूक ॥ जिन भ्रमण में वीर कौशाम्बी नगर के पास । शान्त पहुंचे घूमते वे, मेटते जग-त्रास । सौम्य कौशाम्बी नगर में, पारणा के अर्थ । थे चले सन्मति सकारण, घूमते न निरर्थ । देख महिला दुर्दशा, दासत्व का उपहास । नारियों का बेचना, हा! यह मनुज का ह्रास ॥ वीर ने ली यह प्रतिज्ञा, आज का आहार । मैं करू दासी तिरस्कृत, के यहां स्वीकार ॥ जो कि बन्धन में पड़ी हो, शिर मुड़ा बिन बाल । मूक रोती-सी कि जिसका, हो दुरा यों हाल ॥ पौर कोदों नाज का बस, दे मुझे प्राहार । आज उसका भक्तियुत, स्वीकार हो उपहार ॥ जा रहे प्रब वीर पुर में, बोलते जय लोग। सोचते आहार देने का मिलेगा योग ॥ किन्तु राजा और सेठों के ग्रहों के द्वार । बोरवर है छोड़ जात, प्राज तो हर वार॥ चन्दना दासी कि जिसके, थे मुड़े सब केश । सेठ वृषभसेन-पत्नी ने किया दुर्वेश ॥ बन्धनों में ग्रस्त दुखिया, सुन रही जयकार। पारगा-हित वोर समझी, पा रहे इस द्वार ॥