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१४२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर देख निष्फल सर्व निज बल, वह हुआ हत बुद्ध । देखता सन्मति सु-मुख को, जोकि ऋजु शम शुद्ध । वह विनत फण भक्ति जागी, वीर प्रति अभिराम । सुन रहा कुछ शब्द ज्यों अब, कर्ण में निज. नाम । "भव्य प्राणी पूर्व दुष्कृत, वश हुए तुम सर्प । छोड़ दो सब क्रूरता तुम, छोड़ दो अब दर्प ॥ यों करो कल्याण अपना, आत्म का उद्धार ।' देखता वह कर रहे अब, योगिराट विहार ॥
और इस दिन से कभी वह, है न होता ऋद्ध । सत्प्रकृति उसकी दिखाई दे रही अविरुद्ध । फिर गये उस प्रांत सन्मति, लाढ़ जिसका नाम । साधना में रत हुए, वे मौन हैं निष्काम || बस रहीं कुछ जातियां हैं, हिंस्र . दुष्टानार्य । वे समझती.शत्रु उनको, जातियां जो आर्य । देख सन्मति को वहां पर. ऋ र जन प्रति क्रुद्ध । कर उठे दुष्टाचरण वे शीघ्र वीर विरुद्ध । 'एक दिन तो वीर पर छोड़े शिकारी इवान । पर न किञ्चित वोर चंचल, वे निरत निज ध्यान ॥ और जितने त्रास सम्भव, दे रहे सब क्रूर । अन्त में देखा कि ऋषिवर, द्वेष से पर दूर ॥
भूल सहसा हो गए वे, करता का भाव । दिख रहामा तो अहिंसा प्रति हुमा कुछ चाव।।