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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १३६ एक दिन ध्यानस्थ संन्मति, पास ग्राम कुमार । बैल लें आं रहा कोई, ग्वाल मग्न विचार ॥ कार्य इसको याद कोई, आ गया तत्काल । देख सन्मति को वहां तब, शोघ्र वोला ग्वाल ॥ 'जा रहा मैं गांव को हूं-कार्य है अनिवार्य । देखना मम बैल, प्राता पूर्ण कर निज कार्य । मौन पर सन्मति न बोले-ध्यान में रत भाव । समझ सम्मति छोड़ युग वृष, वह गया निज गांव ॥ बैल लेकिन हुए प्रोझल, कहीं चरते घास । ग्वाल आया तब न देखे, बैल सन्मति पास ॥ ध्यान में रत वीर अब भी, ग्वाल पर अति ऋद्ध । सोचने वह कुछ लगा विन, बैल वह हतबुद्ध ॥ दूर तक वह देख पाया, खोज पर सब व्यर्थ । कह रहा उसका हृदय 'यह हाय महा अनर्थ ॥ बिना बैलों के न मेरा, चल सकेगा काम । खांयगे क्या बाल मेरे, मात्र प्रभु का नाम । मासता कुछ बैल मेरे, ले गये हैं चोर । क्या इसी का ढोंग, चोरों का यही शिरमौर ॥ छमवणे घात में रहता यहां दिन-रात । चोर चेले ले सटकते, माल ऐसी बात ॥ देख अब भी बल दे दे, है नहीं कुछ बात। अन्यथा सहनी तुझे होगा प्रबल प्राघात ॥'