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१३८ तीर्थकर भगवान महावीर मान या अपमान को यों, है न कोई वृत्ति । सौम्य समतामय सादा ही पंथ है निवृत्ति ॥ प्रौढ़ प्रज्ञा भी न उनमें, ला सकी अभिमान । ऋद्धियों या सिद्धियों का, भी न उनको भान ॥ ज्ञान पाते जा रहे लेकिन, न करते गर्व । विश्व-जन लघु ज्ञान पा भी फूलते हैं सर्व ॥ कर रहे तप दृढ़ जटिलतम, पूर्ण करने ज्ञान । पर न केवल ज्ञान पाते, हैं न व भ्रममान ॥ सोचते प्रज्ञानकर्ता, कर्म हैं बलवान । तप न जिसको नष्ट करता, और दृढ़ हो ध्यान ॥ अतः ज्ञानावरण-कारक समिधि प्रबल अपार । सबल तप-ज्वाला जलाकर, उसे करते क्षार ॥ धर्म-पथ वे चल रहे जो, प्रात्म वस्तु स्वरूप । वन शङ्का कियत करते, सत्य श्रद्धा रूप ॥ धर्म करते चपल जग-जन, स्वार्थ से संलग्न । प्राप्त फल होता न, होते, तो न तोष-निमग्न ॥ होन साधन पर न करते स्वयं शांत विचार । धर्म को दोषो बतात', भ्रष्टतम प्राचार ॥ पान सन्मति सिद्ध, लात पर न तुच्छ विचार । मात्म अन्वेषण किया करत स्व-त्रुटि परिहार ॥ दृढ़ तपस्या और करते कर्म करने विद्ध । मात्म निर्मल कर उन्हें तो, आप होना सिद्ध ॥