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१३४ तीर्थकर भगवान महावीर डांस, मच्छर, कनखजूरे, सदा देते त्रास । पर न सन्मति कमी भरते, दुख भरा उच्छ्वास ॥ शेर चीते लकडमग्गे, हिंस्र जन्तु बिहार । कर न पाता कभी उनमें, भीति का सञ्चार ॥ सौम्य मुद्रा और उनका, परम ऋजु प्राचार । सर्वहित करुणा सभी में, वैर करती क्षार ।। कहीं मच्छर काट ले तो, व्यक्ति कहते 'क्लेश' । वीर होते पर न बेकल, लोक-बुद्धि न शेष ॥ बाह्य-भीतर से परिग्रह, ग्रन्थि-हत दिग्वेष । वासना के चिह्न उनमें, थे न किंचित शेष ॥ बाल से वे निर्विकारी, कामनाएं भूल । नग्न रहते परिग्रह तज, दुःख का जो मूल ॥ वासना रहती हृदय में, और बाहर लाज ।
धर न पाता अतः दीक्षा नग्न लोक-समाज ॥ किंतु सन्मति आत्म-शासक, विगत इच्छा काम । मानवी कमजोरियों पर, विजय वे अभिराम ॥ योग और वियोग में वे सदा समरस भाव । परतिमय उनका हृदय-मन, प्रशम सम्यक् भाव ॥ मोहनीय चरित्र कर्मावरण यों चकचूर । किया करते नित्य सन्मति, यत्न यों भरपूर ॥ रमणियों में वानप्रस्थी, भी बने अनुरक्त । बातक्या फिर अन्य की पर वीर पूर्ण विरक्त ।