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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १३१ सूर्य-किरणालोक में मुख, कांति पूर्णापूर्व । साम्य-दिनकर ज्योतिमय-सा, छवि न ऐसी पूर्व ॥ फुदकते से गा रहे अब, खग प्रभाती गान । किन्तु सन्मति को न कुछ मो, लोक का है भान ॥ तीन दिन के ध्यान का था, शुभ किया संकल्प । एक आसन में वहीं दृढ़, कर रहे अविकल्प ॥ भ्र न हिलती दृष्टि भो थिर-नाशिका के अग्र । प्राधि व्याधि उपाधि उनको, कर न पाई व्यग्र ॥ समय भगता जा रहा है, ध्यान में वे लीन । कर्म का प्राना रुका हैं, ऐषणाएं क्षीण ॥ हो गई पूरी अवधि अब, तीन दिन की सर्व । दृग प्रशम वे पारणा-हित, चल दिए बिन गर्व ॥ समिति ईर्या पालते वे, जीव-रक्षा-भाव । दव न जा जतु लघु भो, हा न उनके घाव ॥ बिन निमंत्रण हो चले वे, पारणा के अर्थ । ध्यान उनको निज क्रिया से हो न घटित अनर्थ ॥ जा रहे उस प्रोर अब वे, है जिधर कुलग्राम । ज्ञात कुलनायक जहाँ के भूप का है नाम ॥ कुल नपति ने भक्तियुत हो कर सविधि सु-विचार।
था दिया सम्मति सु-मुनि को, क्षीर रस आहार ॥ कर रहे जब पारणा विम, देव दुन्दुभिनाद । पुष्प-वर्षा, रत्न-वर्षा और जय जय नाद ॥