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१३० तीर्थङ्कर भगवान महावीर
वे वहाँ बैठे प्रचल-से, मूक नीरव गात । ध्यान ही साकार हो ज्यों ध्यान में निष्णात ॥ आत्मिक सत् दृष्टि उनको, बाह्य दृष्टि विहीन । आ रहे अब हैं न उर में, भाव कियत मलीन ।। सघन होती जा रही है, अब अधेरी रात । किन्तु सन्मति के लिये यह, है न भय की बात ॥ वे नहीं उद्विग्न किञ्चित, कर रहे कुछ याद । ले रहे वे तो अलौकिक आत्म का सुख-स्वाद ॥ समय जैसे बढ़ रहा है, जम रहा है ध्यान । वीर का अन्तर्जगत है शांत साम्य महान ॥ ध्यान में आरूढ़ इनको देख कुछ निष्पन्द । तारिकाएं क्या गगन में मुस्कराती मन्द ॥ किंतु सन्मति के नयन तो, रूप जग से बंद । वे न सुनते अब तनिक भी. लोक के छवि-छंद ।। म ख-प्यास न तनिक उर में. कर सकी कुछ खेद । भल कर सब ध्यान में रम, भाव हैं निर्वेद ॥
रात पाई ज्योंकि इन को, जो ढराने हेतु । जा रही निष्फल न पाया चिर विजय का केतु ।। छा रही प्राचो क्षितिज पर, लालिमा मुस्कान । रवि उदय की स्वर्ण किरणें, फैलती अम्लान ॥ कर रहों जो वीर का ज्यों, हैं सुभग अभिवाद । किंतु सन्मति लीन योगी दूर हर्षविषाद ॥