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तीर्थङ्कर भगवान महावीर धार तदनन्तर उन्होंने, मां-पिता प्रति भक्ति । किया अतिम विदा वादन क्षीण ममता-शक्ति । दिया आशिष मां-पिता ने, 'हो सफल मम पुत्र ! लक्ष्य हो तव पूर्ण जीवन-का खिले शतपत्र ॥' शेष पुरजन से विदा भी, मांग कर श्री वीर । थे समुद्यत वन-गमन को, हृदय प्रति गम्भीर ॥ इन्द्र ने इतने समय में, पालकी अभिराम । की उपस्थित था कि जिसका, चन्द्रप्रभ शुभ नाम ॥ वोर किञ्चित मुस्कराये, ओर वोले 'इन्द्र ! कष्ट इतना कर रहे क्यों, आप सौम्य सुरेन्द्र !' इन्द्र बोला- प्रापका यह सुभग-सुकृत-प्रभाव । जो कि मेरे हुए पाने के यहाँ सद्भाव ॥ राज्य जिसके लिए करते व्यक्ति हैं उत्पात । भरत-बाहूबली कि जिसके हित लड़े हो भ्रात ॥ तथा कैकेयी जननि ने, स्व-सुत-हित कर प्राश । दिया रघुबर को चतुर्दश, वर्ष का बनवास ॥ महाभारत का समर भी, राज्य के ही अर्थ । हुआ जिसमें हुए अगणित, दर्दनाक अनर्थ ॥ उसे छिनकी रेंट-सा तज, जा रहे हैं पाप । देव ! इससे और गुरुतर बात क्या निष्पाप ॥ धन्य है निज भाग्य पाया, जो कि ऐसा योग । मापके दर्शन सुभ षा, का मिला संयोग ।