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१२६ तीर्थङ्कर भगवान महावीर वीर के वैराग्य का भी, प्रकट पुर में वृत्त । मोहवश व्याकुल हुए सब, नगर जन मृदु चित्त ॥ किन्तु सन्मति सौम्य मुद्रा, हृदय अति गम्भीर । निकट जिनके मोह युत जन, विगत मोह-समीर ॥
जब चले सन्मति विपिनि को, साथ उमड़ी भीड़। ज्यों कि पंछो जा रहे हों, छोड़कर निज नीड़ ॥ करुण सागर-सा उमड़ता जा रहा चहुं ओर । मन व्यथित-से दिख रहे जन दुख रहा झकझोर ॥ वोर आकर्षण-खिचे से साथ जाते व्यक्ति ।
रोकने पर भी न रुकते वीर प्रति अनुरक्ति । पगे उनमें जा रहे हैं, तरुण बालक बृद्ध । मोह तज पर वीर जाते, हृदय करने शुद्ध ॥ किंतु नायक का भला क्यों, व्यक्ति तज दे संग? चिर सहायक व्यक्ति को क्यों प्रीति कर दें भंग? जब कि पहुंचे नगर बाहर, लौटने के अर्थ । कहा सन्मति ने विनय युत, किंतु सब कुछ व्यर्थ ।। साथ आये विदा करने मात-त्रिशला भूप । वचन कहने को समुद्यत, कण्ठ गद्गद् रूप । अतः समरस शान्त सन्मति, ने कहा गम्भीर । 'दूर पुर से आगए अब, लोटिये धर धीर । योग और वियोग का तो, इस जगत में खेल। कब रहा संयोग सब कुछ, काल देता ठेल ।।