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१२४ तीर्थकर भगवान महावीर मापने मुनिव्रत ग्रहण का, दृढ़ किया सु-विचार। जन्म सार्थकता मनुज को, मोक्ष का यह द्वार ॥ है न मिलता यह मनुज भव बार-बार सदैव । साधना सम्भव इसी में यहीं मिटता दव ॥ कर्म का यह प्रावरण जो, किये आत्म मलीन । साधना से यहां होते घातिका सब क्षीण ॥
आप स्वयं विवेक पालय, धन्य मानव-रत्न । जा रहे करने स्व-पर हित, प्राप्त दुर्गम यत्न ।। काम को इस तरुण वय में, कर रहे विभु नष्ट । हो रहे प्रक्रांत जग-जन, है इसी से भ्रष्ट । प्रापको सददृष्टि अन्तर दूर सब दुर्भाव । साधना के हेतु केवल, जग रहा चित-चाव ॥ मापके सद्भाव हमको, नाथ ! लाये खींच। प्राप सचमुच हैं सफल जन, छोड़ते जग-कीच ॥ देव दर्शन प्रापके कर दूर इच्छा-मार । धन्य हम सौभाग्य पाया, 'दर्श' का उपहार ॥ मापसे निर्मल हमारे, मो बने सुविचार। है सहज जिससे सदा ही प्रात्म का उद्धार । मागए सम्मति पिता-मां, वे वहाँ पर साथ। वीर सुरगण ने जिन्हें लख नत किये निज माय ॥ देव बोले-'पाप पितु-मां के उमय मावशं। धन्य, अनुमति मापने जो दी इन्हें सह-हर्ष ॥