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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १२६ इन्द्र आग्रह देखकर, श्री वीर बैठे शांत । चन्द्रप्रभ पालकी भीतर, सौम्य अद्भुत कांति ॥ हुए जय के नाद सहसा, गुञ्जरित भू-व्योम ।
उच्च यह उद्घोष, बोले ज्यों सभी के रोम ॥ श्याम दशमी माह मगसिर, की सु-सांध्य ललाम । चल दिए बन पालकी में, वीरवर निष्काम ॥
और लौटे स्व-पुर नागर, नपति राज्ञी साथ । किन्तु त्रिशला-नन्द सन्मति, अब न उनके साथ ॥ थी विचित्र दशा सभी की, जा रहे मतिमान । कभी आकुल कभी समरस, जान कभी अजान ॥ उधर समतापूर्ण सन्मति, जा रहे गतिमान । ज्ञातृखण्ड-सुविपिन पहुंचे, कामहत धृतिवान ॥ हुए त्यागी त्याग भूषण, वस्त्र वे दिग्वेष । और लुचित किए सारे, पंचमुष्ठी केश ॥ 'ॐ नमः सिद्ध भ्यः' कह वह शिला पर शांत । मुख किये उत्तर विराजे, वीरवर सम्भ्रान्त ॥ सांध्य का ढलता समय यह, स्वर्ण सा स्वयमेव । विनय वंदन कर गये वे, स्वर्ग को सब देव ॥ अब परिग्रह का न सन्मति-पर रहा कुछ लेश । मान, माया, लोम, रति, भय आदि सब निःशेष ॥ सूर्य अस्तंगत हुमा-सा, फैलता तम-जाल । वीर थे पर साधना-रत, भूल सब जग-हाल ।