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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १२५ ये धरेंगे साधु दीक्षा, आत्म में क्रियमाण । आत्म हितकर ये करेंगे, विश्व का कल्याण ॥' मौन थे सन्मति कि बोले, भूपवर सिद्धार्थ । 'यह समझ हमने न रोका, स्व-पर कल्याणार्थ ।' 'आप हैं मतिमान नपवर दूरदृष्टा विज्ञ । है तभी इनको न रोका, प्राप देव न अज्ञ ॥ देवगण ने नृपति-उत्तर में कही यह बात । फिर कहा-'अब जा रहे हम स्वर्ग को अवदात ॥' और तदनन्तर किया फिर, भक्ति सहित प्रणाम । नृपति, रानी, वीरवर को, सुर गये निष्काम ॥ बाद लोकांतिक-गगन के, सुदृढ़ वीर विराग । जग गया अब तो हृदय में, भाव समरस त्याग । वीर बोले--- 'पूज्य पितु-मां, करूंगा प्रस्थान । सोचता निज वस्तुओं को मैं करूं सब दान ॥ नृपति बोले ठीक है यह, दान को सदवृत्ति । सोचते हम और भी कुछ दान दो सम्पत्ति ॥ भूप त्रिशला, वीर के अब, इस सु-निश्चय रूप। दानशालाएं गई खुल, बहुत वृहत अनूप ॥ मुक्त हाथों बट रहा है, दान चारों ओर । दान-द्रव्यों का न फिर भी, आ रहा है छोर ॥ पुस्त अब दर पुस्त तक को, प्राप्त सबको द्रव्य । चल रही चर्चा चतुर्दिक, दान यह तो मव्य ॥