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हो गया समरस सबेरा, फैलता आलोक । रागतम छिपता दिखाता, चिर विरति का लोक ॥ जागते प्रब नींद से सन्मति, कि उगता सूर्य । है लगा उनको बुलाते, साधना के तूर्य ॥ 'प्रोम् सिद्धान्त वन्दन,' शीश विनत सभक्ति । पूर्ववत् फिर जग उठी वह, भावपूर्ण विरक्ति ॥
चल पलं प्रब साधु दीक्षा, सोचते यों वीर । जिन्दगी हो पूर्ण काटू, कर्म की जजीर ॥ बन्य में जो मात-पित ने, की मुक्ति स्वीकार । मम तपस्या-प्रार्थना भी अब न सोच-विचार ॥ कर रहे जब चिन्तवन यों, वीर निज में लीन । प्रशम लोकांतिक सुरपगण, प्रागए रति-हीन ॥ मा किया बन्दन विनय युत, शांत वे मतिमान । और बोल', 'पन्य स्वामिन् पाप है धीवान ॥ आपने यह सत विचारा, है बधिर संसार। सार इसमें है नहीं कुछ, मोह का प्रागार ॥