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द्वितिया राका-पति से अब, शिशु 'वर्द्धमान' बढ़ते हैं । छवि किन्तु कलाधर से भी, अपनो अनन्त रखते हैं।
वे अभी किन्तु नन्हें-से, मुन्ना भोले से लगते। हैं बोल नहीं पाते पर,
'आ-पा, आ-आ' स्वर करते ॥ उनके 'आ-आ' स्वर में भी मधुरिम सङ्गीत निखरता । सुनने के लिये सभी का, क्षण में जमघट-सा लगता ॥
वे बीच-बीच मुस्काते, जैसे कि फूल झड़ पड़ते । रद-रहित वदन पर उनके, स्मित लख सब जन हंसते ॥