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पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग १०५ काल धर्माधर्म चेतन, शून्य जड़ का योग दिखता ॥.
एक पुद्गल दिख रहा है,
और द्रव्य अदृश्य सारे । . किन्तु संसृति चल रही है, एक दुसरे के सहारे ॥
. नर्क पशु सुर मनुज गति में,
जीव मोही घूमते हैं । कर्म के अनुरूप अपना, भाग्य नित ही ढालते हैं ॥
. मोह के वश जीव-जड़ को,
भेद दृष्टि न समझ आये । कर्म-छिलका हटे चेतन, धान से तो जन्म जाए ॥
___ ज्ञान सत् दुर्लभ जगत में,
भोग-सम्पति सब मिले हैं। पर यथार्थ सुबोध बिन तो, भ्रान्ति वश जग में रुले हैं।
__धर्म का बस एक सम्बल,
जो जगत से पार करता। वस्तु का निज रूप हो तो, धर्म सत् है मुझे दिखता ॥