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पंचम सर्ग: तरुणाई एवं विराम फिर तुम्हारी बात यह क्या, वस्तु-स्थित से रहित है ॥"
'व्यर्व में हो श्री पिता जी, कष्ट इतना है उठाया । बिना मेरी राय के क्यों, मापने उसको बुलाया ॥
सोचता में और कुछ हूं. कर रहे हैं माप कुछ यह । मैं घबंगा साधु दीक्षा, पूर्व निश्चय मम हुमा यह ॥
आज नारी इस जगत में, रह गई बस भोग का रस । वानप्रस्थो रख रहे हैं, मोग-हित युवतियां बश-वश ॥
हो रही हिंसा चतुर्दिक, धर्म के ही नाम पर है । मांस लोलुप व्यक्तियों का, सध रह यों स्वार्य नित है ॥
बीन पीड़ित . प्राणियों को, वेदनायें चिर कराहें । कर रही माह्वान मेरा, माज रोरव यातनायें।