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तीर्थकर भगवान महावीर
रूप का अभिमान किञ्चित, कर रहा अभिभूत उसको । बाह्य से वह कुछ लजाती, पर अमित आह्लाद उसको ॥
'गए सन्मति घूमने को, हैं अभी ही इसी पथ से ।' शब्द उसके कर्ण-कुहरों, में पड़े कुछ मञ्जु स्वर-से ॥
झनझनाये तार कोमल, हृदय-वीणा के सिहर कर। पुनः प्रावर्तन उन्हीं का, हो रहा उर में उमड़ कर ॥
दीर प्रत्यागमन - दर्शन, हेतु इच्छा मुस्कराई । हदय स्पन्दित हुआ-सा, द्वार पर वह शीघ्र प्राई ॥
सान्ध्य-वेला में खड़ी निज शिविर के प्रब द्वार पर वह । कल्पना - हिन्दोल पर अब, चुप खड़ी भी गेलती वह ॥
अरुण ऊषा-से मधुर कुछ, विरकते मृदु भाव उर पर।