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पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग " नाच उठती कामना के, नीर-तट पर मन-मराली ॥'
सोचते एकान्त में .. यों, वर्तमान प्रशान्त मुद्रा ... 'यह जवानी है नशीली, रच रही जो मदिर तंद्रा॥'
शुद्ध 'मैं' का रूप कब है ? यह नशा है धमनियों का । रक्त का उद्वेग कह लो, यह स्वरूप न 'आतमा' का॥
मोह, ममता, लोम, रति, धन, हुए हावी तरुण वय पर । आवरण नित डालते ये, ज्ञान के शाश्वत निलय पर ।
और प्राणी सोचता कब, यह जवानी भी लुभानी । पिर न रह सकती कभी भी, मथिर इसको चिर कहानी ॥
हे जवानी ! किन्तु मुझको, तू नहीं भरमा सकेगी । तू न मेरे मर्त्य तन में, काम-तर पनपा सकेगी ॥,