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तीर्थकर भगवान महावीर
चाह की मृदु चांदनी है, फैलती-सी उर-गगन में। नाचता-सा मोर मन का, हो मगन संसार-वन में ॥
मोह - आकर्षण रंगीले, जाल' कुछ फैला रहे-से । बांधने अभिलाष - पंक्षी, कर रहे थे यत्न जैसे ॥
किन्तु सन्मति सूक्ष्म दृष्टा, देखते सब हो सजग-से । चेतना में लोन सक्रिय, विज्ञ यौवन आगमन से॥
जानते वे काम उग-सा, है रहा मानव-पटल पर ॥ सूक्ष्म और अदृश्य जिसको, गीत रहा चुपचाप पग धर ॥
प्रथम ऊषा की किरण-सा,
यह हृदय रंजित बनाता ।. . किन्तु भावी के लिये यह, विश्व बलदल में फंसाता ॥
'अहे यौवन ! इन्द्रधनु-सो, छिटकती तब छवि निराली।