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तीर्थङ्कर भगवान महावीर
क्योंकि मैंने है न खोया, शुद्ध ज्ञान विवेक-साथी । प्रतः पास न पा सकेगा, काम का उन्मत्त हाथी ॥
शुद्ध चेतन - भाव - नम में चेतना मेरी चढ़ेगो । कल्पना क्रियमाण बन कर, त्याग पंखों पर उड़ेगी ।,
बंधा मेरा 'आतमा जो, देह की जड़ जेल में है। उसे निश्चय एक दिन तो, मुक्त करना ही मुझे है ॥
मुझे लगता, हैं कि जब तक, लोक - इच्छायें मधुरतम । कर्म कोल्हू में जुता हूं, बैल-सा बनकर अधमतम ॥
प्रतः जग की एषणाएं न्यूनतम करनी मुझे है । हे विषम पथ ! भाव मेरे, दे रहे न्योता तुझे हैं ॥
मुझे अस्थिर रूप जगका, दिख रहा चारों तरफ है।