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तीर्थङ्कर भगवान महावीर आहे ! चेतन का महा यों, हो रहा अपमान निशि-दिन । पोषित हो रहा है,
और यह रत घिनगेह जड़ तन 11
वीर्य - रज से देह छो: अशुचि अवतार है चर्म वेष्टित हाड़ मज्जा, का श्रागार है यह ||
रक्त
उपजी,
यह ।
कौन इससे घृणित प्रतिशय, वस्तु जग में हो नौ मुखों से मंल रात दिन क्या लाभ
सकेगी ।
इस लिए इस भ्रमण की गति हो
बहता, देगी ?
विष भरा जैसे कलश रोग शोकों का पिटारा किन्तु फिर भी लोन इसमें, जीव सहता दुख विचारा ॥
हो,
मोह का पर्वा पड़ा ज्ञान- ज्योति न मिल रही है । जीव को तो, रही है ॥ भ्रमित बेही देह के हित, इच्छ। ऐ संजोता ।
नवल