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तीर्थङ्कर भगवान महावीर सब उनको गोदी लेते, पर वे तो भूमि प्रोर ही। जाने की कोशिश करते, दिसती उनकी यह रुचि ही ॥
पृथ्वी पर लोट-लोट कर, घुटनों वे चलने लगते । मंजुल प्रसन्न आनन से,
दो दाँत हृदय-हर दिखते॥ मानों कि अधर अम्बुधि से, युग रद के रत्न निकलते। लख जिन्हें मात-पितु गृह-जन, हैं फूले नहीं समाते ॥
बढ़ते शिशु बर्द्धमान कुछ, अब स्वयम् बैठ जाते हैं। घुटनों के बल तो वे अब,
अति छिप्र चाल चलते हैं। मां त्रिशला उनकी गति को, लख कर प्रसन्न होने को। कुछ दूर-दूर जा करके, वे प्रायः बुलाती उनको ॥
'आ-पा, मां-माँ' कुछ करते, मां निकट शीघ्र वे जाते ।